प्राचीन काल के मंदिरों के पुजारी इस कला के माहिर हुआ करते थे और मंदिर में आये अपने जजमानों को सहसा ' आकाशवाणी' सुना कर चमत्कृत करते थे-मतलब वे बोलते तो खुद थे मगर ऐसा लगता था कि आवाज कहीं दूर से आ रही है-इसमें पेट की मांसपेशियों के सहारे फेफड़ों पर बल देकर आवाज को प्रोजेक्ट किया जाता था.....इसलिए इस कला का नाम पेट बोली भी है.